जहाँपनाह जो आराम पालकी में है वह बग्घी में कहां,



( रेजीडेन्ट चेरी, नबाब आसफ़ुद्दौला और सुरजी कहार )

बग्घी का प्रयोग योरोप में प्रारम्भ हो चुका था! इंग्लैण्ड से कुछ बग्घियां भारत भेजी गयीं थीं और उन्हीं में से एक बग्घी लखनऊ में अंग्रेज रेजीडेन्ट चेरी ' को भी मिली थी, जिस पर बैठकर कर वह नबाब आसफ़ुद्दौला के दरबार में हाजिर होता था! चेरी अक्सर नबाब आसफ़ुद्दौला को प्रेरित करता था कि वह स्वयं के लिए एक बग्घी मंगवा लें, सैर - सपाटे के लिए सुबिधा होगी! वह नबाब साहब के लिए खासतौर पर इंग्लैण्ड से बग्घी मंगवा देगा! एक दिन उसने फिर दरबार में बग्घी की चर्चा छेड़ दी! दरबारी उसकी हां में हां मिला रहे थे और नबाब आसफ़ुद्दौला ने मुड़कर अपने खास खवास और व्यक्तिगत परिचारक 'सुरजी' कहार की ओर देखा था! सुरजी जो नबाब आसफ़ुद्दौला का पालकी बरदार भी था, उसने अदब से अर्ज़ किया जहांपनाह जो आराम पालकी में है वह बग्घी में कहां! उबड़ - खाबड़ रास्तों पर बग्घी शरीर की चूलें हिला देगी! जबकि पालकी आरामदेह और पुरसुकून है! रेजीडेन्ट चेरी ' सूरजी ' कहार की बातों से चिढ़ गया! उसने कहा अगर दो कोस जाना हो तो बग्घी पहले पहुंचेगी या पालकी ? 'सुरजी' ने कहा कि रेजीडेन्ट साहब, पालकी भी आपके बग्घी से पीछे नहीं रहेगी! बात आकर बग्घी और पालकी के बीच दौड़ - प्रतियोगिता पर अड़ गयी थी!

जब कहारों ने अंग्रेजों के घोड़ों को दौड़ में हराया

तय हुआ कि बग्घी और पालकी के बीच एक दौड़ हो । दौड़ की दूरी 1 कोस अर्थात् 2 मील होगी । गोमती के किनारे कहारों के दौड़ने की खातिर एक नई सड़क बनाई जाने लगी । उधर सुरजी कहार भी दौड़ - धूप कर रहा था मजबूत कहारों की टोली जुटाने की खातिर । उसने बेतवा के किनारे से , यमुना के खलारों से , गंगा के दोआबे से चुन - चुनकर मजबूत कहार इकट्ठे किये । कहारों के लिये एक जैसे वस्त्र , साफा और घुटन्ना तैयार कराया गया । तय समय पर चेरी अपनी बग्घी के साथ और सुरजी अपनी पालकी के साथ उपस्थित हुए । सुरजी ने कन्धा बदलने के लिये 100--100 गज की दूरी पर कहारों की टोलियां नियुक्त कीं ।

अब रेजीडेन्ट चेरी अपनी बग्घी पर सवार हुआ और नबाब आसफ़ुद्दौला अपनी पालकी पर ।  दौड़ शुरु हुई । गोमती के दोनों तटों पर तमाशबीनों की भीड़ भरी पड़ी थी । बग्घी और पालकी समानान्तर ही दौड़ रही थीं ।लेकिन दौड़ के अन्तिम चरण में सुरजी  चुनिन्दा कहारों के साथ उपस्थित था ।

वाह रे सुरजी ! वाह रे शेर ! और सुरजी ने अंग्रेज रेजीडेन्ट चेरी की बग्घी को लगभग 2 गज पीछे छोड़ते हुए दौड़ प्रतियोगिता जीत ली थी ।

नबाब आसफ़ुद्दौला का चेहरा खुशी के मारे लाल हो गया था । सारे कहारों को बहुमूल्य उपहारों तथा ईनाम - एकराम से नवाज़ा गया और सुरजी को मिली थी राजा सूरज प्रसाद की उपाधि । एक बहुत बड़ी जागीर जो राजा महरा की जागीर के नाम से प्रसिद्ध हुई । इस दौड़ के दो परिणाम हुए । सुरजी दरबारियों की ईर्ष्या का केन्द्र हो गया । 

Devendra Singh ji 

पुराने #लखनऊ में आज भी एक मोहल्ले का नाम हाता सुरज  सिंह है। 

#आसफ़ुद्दौला मिर्ज़ा मोहम्मद याहिया खान 23 सितंबर1748 

21 सितंबर 1797  लखनऊ

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